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मिर्ज़ा ग़ालिब: वह शायर जिसके लिए दुनिया बच्चों के खेल का मैदान थी

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हैं और भी दुनिया में सुखन-वर बहुत अच्छे कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज-ए-बयाँ और

दो सदी गुजर गई लेकिन आज भी ग़ालिब के अंदाज़-ए–बयान अनोखी ही है। ग़ालिब सिर्फ एक शायर ही नहीं हैं बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के संयुक्त सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण स्तंभ हैं।

ग़ालिब से पहले मीर तक़ी मीर ने फारसी कविता के प्रवाह को हिंदुस्तानी भाषा में लाने का काम किया था पर ग़ालिब इस कार्य को अलग ही ऊंचाई पर ले गए। मीर तक़ी मीर के प्रति ग़ालिब में किस कदर आदर भाव था यह उनके इस शेर से समझा जा सकता है।

रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब’

कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर’ भी था

आज ग़ालिब की 220वीं जयंती है। और इस अवसर पर गूगल अपने डूडल के जरिए उर्दू के इस महान शायर का श्रद्धापूर्वक नमन कर रहा है। ग़ालिब के बचपन का नाम मिर्ज़ा असदुल्लाह् बेग खान था और उनका जन्म 27 दिसंबर 1979 को आगरा के एक धनी परिवार में हुआ था। 13 वर्ष की आयु में उनका विवाह नवाब ईलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से हो गया था। विवाह के बाद वह दिल्ली आ गये थे जहाँ उनकी तमाम उम्र बीती।

ग़ालिब का ताल्लुक एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार से था। ग़ालिब ने अपने पिता और चाचा को बचपन में ही खो दिया था। उनके चाचा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में एक सैन्य अधिकारी था और ग़ालिब का जीवनयापन मूलत: अपने चाचा के मरणोपरांत मिलने वाले पेंशन से ही होता था। मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे। 1850 में शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय ने मिर्ज़ा गालिब को दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के खिताब से नवाज़ा। बाद में उन्हे मिर्ज़ा नोशा क खिताब भी मिला। वे शहंशाह के दरबार में एक महत्वपूर्ण दरबारी थे। उन्हे बहादुर शाह ज़फर द्वितीय के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार फ़क्र-उद-दिन मिर्ज़ा का शिक्षक भी नियुक्त किया गया। वे एक समय में मुगल दरबार के शाही इतिहासविद भी थे।

ग़ालिब की गज़लों में एक खास किस्म की उदासी झलकती है। इस उदासी के कई वजह हो सकते हैं। मिर्जा ग़ालिब ने अपने 7 नवजात बच्चों को मरते देखा। उनका आर्थिक जीवन भी उथल-पुथल भरा रहा और उनको मिलने वाली पेंशन हमेशा अनियमित रहा करती थी। हालांकि पेंशन की अनियमतता के बवजूद मिर्जा ग़ालिब ने कभी अपनी शान-ओ-शौकत से समझौता नहीं किया। मिर्ज़ा ग़ालिब 1857 के विद्रोह और मुगल शासन के अंत के भी गवाह रहे। ग़ालिब की जिंदगी में जो उथल-पुथल रही शायद उसी ने उन्हें दुनिया के प्रति निर्लिप्त बना दिया था। उनकी यह निर्लिप्तता उनके इस शेर से साफ झलकती है-

बगीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे, होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे।

यानी यह दुनिया मेरे लिए बच्चों के खेल के एक मैदान की तरह है जहां रोज मैं कोई न कोई तमाशा होते देखता हूँ।

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