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मेवाड़ महाराणा अमरसिंह का इतिहास – मेवाड़ की स्थिति

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चित्तौड़गढ़ व मांडलगढ़ को छोड़कर सम्पूर्ण मेवाड़ पर महाराणा प्रताप का अधिकार था | पिछले 9 वर्षों में मेवाड़-मुगलों के बीच कोई बड़ा युद्ध नहीं हुआ | 1578 ई. में एक समय एेसा आया जब मेवाड़ी फौज 1000 ही रह गई थी, लेकिन एेसी परिस्थितियों में भामाशाह की मदद मिली | 9 वर्षों (1588-1597) तक बड़ा युद्ध नहीं होने से मेवाड़ को संभलने का मौका मिल गया और फौज में वृद्धि हुई |

“महाराणा अमरसिंह द्वारा राजगद्दी मिलते ही किए गए महत्वपूर्ण कार्य”

  • महाराणा अमरसिंह ने गोडवाड़ व मुलतान से कुछ तोपचियों को बुलवाया
  • जहांजपुर क्षेत्र में अपने नाम से अमरगढ़ बनवाया
  • महाराणा ने हरिदास झाला को प्रधान सेनापति नियुक्त किया
  • पैदल व घुड़सवार फौज तैयार की
  • महाराणा अमरसिंह ने भीलों से अच्छा व्यवहार बनाए रखा | भीलों की कमान पानरवा के राणा पूंजा भील के बेटे रामा भील के हाथ में थी | हालांकि राणा पूंजा इस समय जीवित थे, लेकिन वृद्धावस्था के चलते युद्धों में भाग नहीं ले पाए |
  • महाराणा ने मेवाड़ के कुछ किलों व थानों, उदयपुर के राजमहल वगैरह को सुदृढ़ बनाया नए हथियार वगैरह खरीदे ।

महाराणा अमरसिंह ने सामन्तों की दो श्रेणियां बनाई :- उमराव और सरदार | महाराणा ने यह परम्परा तोड़ दी कि एक सामन्त की जागीर सदा उसी की रहेगी | जागीरें वंश परम्परा के अनुसार ना देकर, सामन्तों के दायित्व के अनुसार दी गई | महाराणा ने दरबारी परम्परा और वेशभूषा में बदलाव किए | उन्होंने अपने नाम से एक विशेष पगड़ी प्रचलित की, जो ‘अमरशाही पगड़ी’ के नाम से जानी गई और पीढ़ियों तक इस तरह की पगड़ी पहनी गई | हालांकि जो सामन्त मेवाड़ के बाहर से आए हुए थे, उन्हें अपनी इच्छा से पगड़ी पहनने की छूट दी गई |

बाद में महाराणा अमरसिंह द्वितीय ने भी इसी नाम से पगड़ी जारी की

  • महाराणा अमरसिंह ने अपने पिता महाराणा प्रताप द्वारा सम्मानित व्यक्तियों को भी पूर्ण सम्मान दिया | महाराणा अमरसिंह ने दानवीर भामाशाह को प्रधान मन्त्री पद पर बनाए रखा |
  • महाराणा ने कुम्भलगढ़ क्षेत्र में कुछ उजड़े हुए कस्बे और सायरा नामक गाँव बसाया
  • कृषि भूमि का प्रबन्ध फिर से कराकर नई दरों पर लगान निर्धारित किया गया
  • महाराणा की छत्रछाया में रहते हुए पंडित जीवधर ने ‘अमरसार’ ग्रन्थ लिखा
  • महाराणा ने ज्योतिष शास्त्र से सम्बन्धित ‘अमरभूषण’ ग्रन्थ लिखवाया

महाराणा अमरसिंह ने इस एक वर्ष में जो तैयारियां की वो भविष्य में होने वाले युद्धों के लिए थी। पिछले 9 वर्षों की शांति से महाराणा अमरसिंह खुश नहीं थे, उनका हृदय अपने पिता की भांति ही मुगलों से लोहा लेने को आतुर था। महाराणा प्रताप के चित्तौड़ जीतने का सपना महाराणा अमरसिंह की आंखों में शुरुआत से ही था और चित्तौड़ जीतने के लिए जरूरत थी धन और बड़ी फौज की। वर्षों से मंद पड़े संघर्ष को चिंगारी देने की शुरुआत महाराणा अमरसिंह ने स्वयं की और तय किया कि जो मुगल थाने मेवाड़ से बाहर हैं उन पर हमले किये जायें, उन्हें लूटा जाए।

“महाराणा अमरसिंह द्वारा जागीरें देना”

  • चारण कवि दुरसा आढा ने महाराणा अमरसिंह से रायपुर गांव जागीर में मांगा, तो महाराणा ने उसी समय यह गांव उन्हें जागीर में दे दिया। इसके बाद दुरसा जी ने खुश होकर कई दोहे महाराणा की प्रशंसा में लिखे।
  • महाराणा अमरसिंह ने राजराणा देदा झाला के बेटे रामसिंह झाला को सरोड़, पीदड़ी, भीडाणा, भाणुजा, मुकुनपुरा, नारजी का खेड़ा, झालारों साल नामक गांव जागीर में दिए |
  • महाराणा अमरसिंह ने राजराणा देदा झाला के बेटे नरहरदास झाला को कुडला, मकोड्या, हरजी खेड़ा, नपाण्या, पारापीपरी नामक गांव जागीर में दिए |
  • इन्हीं दिनों महाराणा प्रताप के पुत्र व महाराणा अमरसिंह के छोटे भाई पुरणमल द्वारिका यात्रा पर गए | इसी दौरान जूनागढ़ के मुस्लिम सूबेदार ने लूनावाडे के सौलंकी राजा पर हमला किया | रास्ते में पुरणमल को पता चला तो उन्होंने मुस्लिम सूबेदार को पराजित कर लूनावाडे के राजा की मदद की | सौलंकी राजा ने खुश होकर पुरणमल के बेटे सबलसिंह को अपने यहीं रख लिया और मलिकपुर, आडेर आदि जागीरें दीं | पुरणमल उदयपुर पहुंचे, तो महाराणा अमरसिंह ने उनको मांगरोप की जागीर दी | पुरणमल ने मांगरोप में जंगल साफ करवाकर गांव बसाया | पुरणमल की उपाधि महाराज (बाबा) है |
  • महाराणा अमरसिंह ने लाखौड़ा में रामपुरा, कुम्भलगढ़ में केलवा व चित्तौड़ में मुरेली वगैरह जमीनें दी, जिनके ताम्रपत्र अब तक मौजूद हैं |
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